भारतीय संस्कृति में बदलाव के लक्षण संविधान लागू होने के लगभग 20-25 वर्षों बाद नजर आने लगा था। तब तक जातीय भेदभाव खूब रहा था। शिक्षितों की संख्या बढने लगी थी। तकनीकी शिक्षा का प्रसार होने लगा था। उद्योगों में उत्पादन बढने लगा था तथा लोगों की बेरोजगारी भी दूर होने लगी थी।
भारतवर्षभारत की महान संस्कृति
दूरदर्शन का प्रसारण भी तभी प्रारंभ हुआ था। वरना उससे पहले लोग इसे नुमाईशों में देखकर ही प्रसन्न हुआ करते थे।
वर्तमान स्थिति में जातीय भेदभाव शहरों में लगभग समाप्त सा है, अंतर्जातीय व अंतर्धार्मिक वैवाहिक संबंध बढने लगे हैं। देश आधुनिकता की ओर बढने लगा है। ये भारतीय संस्कृति में बदलाव के लक्षण ही है।
नए दौर में मानवीय मूल्यों का जिस प्रकार से पतन हो रहा और समाज में बुरे बदलाव हो रहे वो काफी चिंतित और व्यथित करने वाले है।
आधुनिकता के दौड़ में हम सब उस अंधे व्यक्ति के समान हो गए है जिसका मुंह खाई की तरफ़ कर के हम उसे आगे दौड़ने के लिए कहते है।
ये बदलाव बहुत ही ज्यादा भयानक है और अगर इन्हें समय रहते नहीं रोका गया तो ये और ज्यादा भयानक होंगे।
आज एक स्त्री को अपने बच्चे तक कि परवरिश करने का समय नहीं।आपके लिए पैसा इतना ज़रूरी हो गया कि आप बच्चों में अच्छे संस्कार भी नहीं देना चाहती।माताएं कामवाली बाई के भरोसे बच्चे छोड़ के जा रही,सोचिए स्थिति कितनी दयनीय है।
पहले तो घर में बुजुर्ग होते,दादा दादी होते आजकल आधुनिकता के दौड़ में वो सब भी पीछे छूट गया।एक बच्चे के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी मां होती है लेकिन आज की माताएं सिर्फ़ मां होने का गौरव करती है उसे अच्छे से निभाती नहीं।
बच्चें संभालनी वाली दाइयों का हाल किसी से छुपी नहीं है।
न जाने कितने ही वीडियो सोशल मीडिया और न्यूज चैनल पर चलती रहती है।
मुझे ये देख के और ज्यादा दुख होता है कि छोटे छोटे बच्चों तक को मोबाइल में वीडियो चालू कर के पकड़ा दिया जाता जिससे वो खाना अच्छे से खाएं।
अब जब नींव ही कमज़ोर रखोगे तो इमारत कैसे मजबूत होगी।बच्चो को मोबाइल फोन का चस्का तभी से लग जाता है।आजकल के बच्चे ज्वाइंट फैमिली का मतलब क्या समझेंगे।उन्हें तो घर आएं रिश्तेदारों तक से बात करने की तमीज नहीं है और ना ही अपनापन।उनका अपनापन अब सिर्फ और सिर्फ मोबाइल फोन से रह गया है।कहीं भी जाएं मोबाइल फोन से चिपके रहेंगे। हद तो तब हो जाती है जब बाथरूम मे भी इन्हें मोबाइल चाहिए।और करें भी तो क्या जब खाने के लिए मोबाइल चाहिए तो निकालने के लिए भी चाहिए।
कहा तो हम कराग्रे वसते लक्ष्मी से शुरू करते थे कहा आज हम उठते ही मोबाइल फोन देखते है।फेसबुक व्हाट्सअप इंस्टाग्राम तमाम तरह के अप्लिकेशन में उलझ गए है।
बेवक्त का खा रहे बेवक्त का सो रहे और गर्व से कहते है कि हम स्वस्थ है।आप स्वस्थ नहीं है भाई, बिल्कुल नहीं है।
आपकी विचार शक्ति क्षीण हो रही है।हमें जो भी देखना सुनना जानना होता है तुरंत गूगल बाबा।हम सोचने समझने का स्तर ही खो बैठे है आजकल।एक चीज़ याद रखना गूगल आप जो कहते है वो तो दिखाता ही है लेकिन वो ये भी दिखाता है जो आप नहीं कहते।
पहली चीज आज का देखना ,सुनना दोनों दूषित हो चुका है।जो नहीं देखना जो नहीं सुनना वहीं दिन रात सुन रहे।हम में इतना भी विवेक शेष नहीं रहा की हम ये जान सके कि हमें क्या देखना है क्या सुनना है।
जितनी ही सुविधाएं बढ़ रही हम उतने ही पीछे जा रहे है।
आधुनिकता के इस दौड़ ने विचार करेंगे तो आप पाएंगे हमनें सिर्फ़ सुविधाएं बढ़ाई है लेकिन हमने खोया बहुत कुछ है।जैसे अपना विवेक,ध्यान,शांति,संस्कार,बुद् धि।
आज ज़रा ज़रा सी बात पर लोग एकदुसरे का कतल कर दे रहे।रेप दिन दहाड़े हो रहे।कभी भाई या बाप के सामने ही उसके बहनों से रेप किया जा रहा तो कहीं मजहब के नाम पर हजारों को आतंकवादी बन के मार दिया जा रहा।
आजकल अस्सी प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया को वैश्या लय समझ लिया है।जहां वो ठरक और चरित्रहीनता का जीता जागता उदाहरण है।
एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर आजकल आम हो चला है।कहां तो हमारी विरासत सती सावित्री और अनुसुइया जी से आगे बढ़ती थी कहां आज हम सोशल मीडिया ऐप के लिए जिस्म की नुमाइश करते फ़िर रहे।
बहू बेटियां वैश्या के जैसे कमर हिला के लोगो का मनोरंजन कर रही।
हम शिक्षा तो लिए है लेकिन शिक्षित होना भूल गए।
राह चलते पान सुपारी थूक रहे।कुछ खाया कचरा वहीं बिना कूड़ेदान के फेंक दिया।जहां लिखा रहेगा यहां पेशाब करना मना है वहीं ये पेशाब करेंगे।जहां धूम्रपान मना है वहां ये धूम्रपान करेंगे।यहीं वो लोग है जो सरकारों को दिन रात गाली देते रहते है।यहीं वो लोग है जो गंदगी पर ज्ञान देते है और ख़ुद गंदगी फैलाते है।
मांसाहार और शराब का सेवन आधुनिकता की निशानी हो गई है हमारे शास्त्रों में ऐसे लोगो को राक्षस कहा गया है इंसान नहीं।और मजे की बात देखिए ऐसे लोगो के पोस्ट पर लोग और ज्यादा वाह वाही करेंगे।किसी ने शराब का बोतल खोल के उसकी फ़ोटो सोशल साइट पर डाल दिया तो संस्कार बचाने वाली महिलाएं ही पहले वाह वाही करने पहुंच जाएंगी।
कब सुधरेंगे आप?
ख़ुद से कभी हमने पूछना जरूरी ही नहीं समझा कि क्या हम इंसान कहलाने लायक है?
यकीन मानिए नहीं है।इंसान वहीं जिसमें इंसानियत हो।
फेमिनिज्म के नाम पर नंगा नाच हो रहा।घर का खाना बनाना महिलाओं को अब बोझ लगने लगा।सर का घूंघट अब उन्हें गुलामी की निशानी लगने लगी।दुपट्टा अब उन्हें गले कसने वाली रस्सी लगने लगी।
राह चलते महिलाओं को देख आंखों से बलात्कार करने वालें आजकल बढ़ते जा रहे है।ऐसे देखेंगे की बस अभी मौका मिले तो मर्दानगी दिखा देंगे लेकिन ये शायद भूल जाते है महिलाओं में काम इच्छा ज्यादा होती है बावजूद इसके उन्हे नियंत्रण रखना आता है।
बसों,ट्रेनों में प्राइवेट पार्ट छूने से लेकर सोशल मीडिया तक मे हवस भरी नजरों से देखना बन्द करिए।याद रखिए आपके घर मे भी मां बहन है उनके साथ भी यहीं सब होता होगा क्युकी आप अगले नीच नहीं है।
ख़ुद में सुधार लाएं।देवता नहीं इंसान बन जाएं वहीं काफ़ी है।
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